स्वर्गीय कमल दीक्षित सर. |
बात पते की
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Saturday 24 April 2021
पत्रकारिता के चलते फिरते विश्वविद्यालय का यूँ चले जाना…
Thursday 17 September 2020
अंग्रेजी को लेकर मन के भ्रमजाल का सफाया करती है संक्रान्त की यह किताब
भोजन और वेशभूषा की तरह
भाषा हमारी संस्कृति और संस्कारों की मुख्य वाहक होती है। हमारा वातावरण हमारी
भाषा को प्रभावित करता है। भाषा लोकतंत्र की वाणी भी है और व्यवहार भी। एक सभ्य
लोकतंत्र, राजनीति के
पक्ष-प्रतिपक्ष, समर्थन-विरोध या
प्रकृति-संस्कृति का ही लोकतंत्र नहीं होता। वह भाषा का लोकतंत्र भी होता है। 'अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल' पुस्तक के लेखक
संक्रान्त सानु ने पुस्तक की भूमिका में बहुत ही सरल शब्दों में स्पष्ट किया है कि
कैसे बहुभाषी राष्ट्र भारत में अंग्रेजी का प्रभुत्व होने से देश में हिंदी तथा
अन्य भाषाई लोगों के बीच एक बड़ा मतभेद एवं मनभेद पैदा हुआ है। संक्रान्त ने
कानपुर से दिल्ली के बीच उनकी बस यात्रा में घटित घटना क्रम का उल्लेख कर इस बात
का बेहतरीन उदाहरण भी दिया है।
इस पुस्तक में लेखक ने
अंग्रेजी भाषा के भ्रमजाल से आर्थिक व सांस्कृतिक परिणामों, हमारे विचारों और
नीतियों में आए अंतरों के अध्ययन के आधार पर भारत के पिछड़ेपन की वजह बताया है।
यही नहीं, भाषा के संदर्भ में
लेखक ने विभिन्न विकसित व विकासशील एवं निर्धन देशों का विश्लेषण तथ्यों एवं
आंकड़ों के साथ बहुत ही सरल ढंग से किया है। पुस्तक में उदाहरण के साथ बताया गया है
कि कैसे भाषा किसी देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती है। 20 सर्वाधिक धनी व
20 सर्वाधिक निर्धन राष्ट्र के प्रति व्यक्ति जी.एन.पी.(सकल राष्ट्रीय उत्पाद) , वहां की जनभाषा और
राजभाषा के विश्लेषण को देखेंगे तो आसानी से समझ सकेंगे कि निर्धन राष्ट्रों में
स्थानीय भाषा का राजभाषा अर्थात कामकाज की भाषा ना होना विकास में बाधक है।
क्योंकि स्थानीय भाषा में शिक्षित लोगों को प्रगति के लिए अद्रश्य बाधा का सामना
करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उपनिवेशवादी अन्यों की अपेक्षा हमेशा ऊपर उठा रहता
है।
भारत समेत ऐसे तमाम देश
हैं जहां जनभाषा और राजभाषा में अंतर होने से उन देशों की अपनी जनसंख्या का बहुत
कम भाग बौद्धिक रूप से विकसित हो पाता है। भारत में अंग्रेजी भाषा के पक्ष में इस
तरह के भेदभावपूर्ण रवैये की वजह सरकारी नीतियां ही हैं। 'अंग्रेजी माध्यम के भ्रमजाल' पुस्तक में संदर्भित
श्री धर्मपाल की किताब 'द
ब्यूटीफुल ट्री' में 19वीं सदी की शुरुआत में यानि प्रारंभिक ब्रिटिश काल के समय
भारत में प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च
शिक्षा व्यवस्था का पता चलता है। श्री धर्मपाल के अनुसार 1822-1825 के बीच भारतीय
स्कूलों की स्थिति इंग्लैंड से बहुत बेहतर थी। पठन एवं पाठन स्थानीय भाषाओं, संस्कृत एवं फ़ारसी भाषा
में होता था। लेकिन विरोधी ताकतों ने भारत में बहुत ही नीतिगत ढंग से हमारी शिक्षा
व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास किया। यही नहीं अंग्रेजी हुकूमत ने सुन्योजित
ढंग से भाषा के आधार पर हमारे ही बीच विभेद पैदा किया, जो आज तक बना हुआ है।
भाषा से किसी भी
व्यक्ति के ज्ञान के स्तर को तय नहीं किया जा सकता। फिर भी कान्वेंट स्कूल के
अंग्रेजी उच्चारण वाले वर्ग को सर्वोच्च स्थान पर रखा जाता है। जबकि उनकी तुलना
में निजी या सरकारी स्कूलों में पढ़े एवं कम संशोधित अंग्रेजी बोलने वालों को
द्वितीय स्थान पर रखा जाता है। यहां तक की अंग्रेजी उच्चारण में स्वयं को असहज
पाने वालों को असभ्य या अनपढ़ मानकर समाज में इससे नीचे के पायदान पर धकेल
तिरस्कृत किया जाता है। मैं इस पुस्तक के बारे में आगे लिखूं इससे पहले खुद के साथ
घटित घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। कक्षा पांचवीं की पढ़ाई के बाद मेरे अभिभावकों
ने मुझे कक्षा छटवीं में यह कहते हुए अंग्रेजी माध्यम स्कूल में दाखिला लेने के लिए
कहा कि यदि खुद का बेहतर भविष्य बनाना चाहते हो तो अंग्रेजी सीखो। इससे यह समझा जा
सकता है कि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र होने के बावजूद यहां की शिक्षा व्यवस्था में
अंग्रेजी को इतनी अहमियत दी जाती है और उसे प्रथम स्थान दिया गया है। यहां मैं
स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा का आलोचक नहीं हूँ।
इस पुस्तक में ऐसे अनेक
सरलतम उदाहरण दिए हैं जिससे भाषा का किसी राष्ट्र के विकास में महत्व को आसानी से
समझा जा सकता है। लेखक ने भारत समेत तमाम देशों की राजभाषा और जनभाषा के अंतर से
उपजी समस्याओं का तर्कपूर्ण विश्लेषण किया है। साथ ही उन्होंने इस समस्या के
निराकरण हेतु महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं। हमारे देश में जब भी अंग्रेजी को मुख्य
भाषा ना मानते हुए इसके वैकल्पिक भाषा पर विचार किया जाता है तो अक्सर हमारे देश
के भिन्न-भिन्न प्रांतो से विरोध के स्वर उठने लगते हैं। उस विवाद के निराकरण हेतु
संक्रान्त सानु ने यूरोपीय संघ का उदाहरण देते हुए बताया है कि यूरोपीय संघ की
चौबीस वैकल्पिक भाषाएं हैं, यूरोपीय संघ की वेबसाइट
पर चौबीस की चौबीस भाषाएं उपलब्ध हैं। उनकी फ़ोनलाइन्स एवं अन्य संचार माध्यम
चौबीसों भाषाओं में उपलब्ध हैं। उनकी चौबीसों भाषाओं में से किसी भी भाषा में से
उनसे संपर्क किया जा सकता है। जबकि पुरे यूरोपीय संघ की अपेक्षा भारत की जनसंख्या
लगभग डेढ़ गुना है। इसी तरह भारत की केंद्र सरकार को भी सभी मुख्य 22 भाषाओं को
बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा करने के लिए अनुवादकों के साथ-साथ मशीनी अनुवाद की भी मदद
ली जा सकती है।
तमिल के व्यक्ति को
तेलुगु में, बंगाल के व्यक्ति को
बंगाली में, गुजरात के गुजराती में
और इसी तरह अन्यों को भी उनकी स्थानीय भाषाओं में ही रोजगार मिलने के विकल्प से
हमारे विवाद भी खत्म हो सकते हैं और हमारी सांस्कृतिक विरासत को और भी मजबूत बना
सकते हैं। संक्रान्त सानु प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम(कान्वेंट स्कूल) व
उच्च शिक्षा में आई.आई.टी. जैसे संस्थान के विद्यार्थी रहे हैं। वे माइक्रोसॉफ्ट
जैसी अंतरराष्ट्रीय कम्पनी के प्रबंधक रहे हैं। उन्होंने इस पुस्तक में कई देशों
की उनकी यात्राओं और उन देशों की भाषाई व्यवस्था के गहन अध्ययन का सार प्रस्तुत
किया है। भाषा भी किसी देश की अर्थव्यवस्था को इतना प्रभावित कर सकती है यह इस
पुस्तक को पढ़ने से पहले मैंने कभी नहीं सोचा था।
इस पुस्तक का पहला
संस्करण वर्ष 2015 में आया था। जब हम बहुत ध्यान से हाल ही में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति 2020 का अध्ययन
करते हैं तो हम यह पाएंगे की कहीं न कहीं संक्रान्त सानु द्वारा इस पुस्तक में
बताये गए सुझावों जैसे 3 लैंग्वेज फ़ॉर्मूले की बात की गई है। जिसमें कक्षा पाँच
तक मातृ भाषा/ लोकल भाषा में पढ़ाई की बात की गई है। साथ ही ये भी कहा गया है कि
जहाँ संभव हो, वहाँ कक्षा आठ तक इसी
प्रक्रिया को अपनाया जाए। संस्कृत भाषा के साथ तमिल, तेलुगू और कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओं में पढ़ाई पर भी ज़ोर दिया
गया है। उच्चत्तर माध्यमिक शिक्षा में भी भाषा की पढ़ाई को वैकल्पिक बनाया गया है।
हालांकि यह नीति कितनी सफल होगी यह तो भविष्य ही बताएगा।
152 पृष्ठों में लिखिति
यह किताब हमारे मन के अंग्रेजी माध्यम के भ्रमजाल का सफाया करने के लिए
सर्वश्रेष्ठ कृति है। इस पुस्तक को प्रभात प्रकाशन, दिल्ली ने छापा है। इसकी कीमत मात्र ₹200 है। मूल रूप से यह किताब
अंग्रेजी में लिखी गई है, इसका हिंदी अनुवाद सुभाष दुआ ने किया है। यह किताब ऑनलाइन माध्यमों
पर भी उपलब्ध है।
लेखक:
संक्रान्त सानु
हिंदी
अनुवादक: सुभाष दुआ
मूल्य:
200 रुपये
प्रकाशक:
प्रभात प्रकाशन, 4/19 आसफ अली रोड,
नई दिल्ली- 110002
संपर्क: prabhatbooks@gmail.com
Saturday 28 March 2020
काश! दुआएं ही दवा बन जाएं
हमारे
लिए अब कोरोना अपिरिचित शब्द नहीं रहा। टिक टिक करती घड़ी की सुईयों के साथ विश्व
भर में कोरोना से मरने एवं उससे प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत ही
नहीं पूरा विश्व इससे प्रभावित हो रहा है। कोविड-19 के
इस प्रहार ने दुनिया को अपने घरों में रहने के लिए मजबूर कर दिया है।5 नवंबर 2013 को जब भारत के आंध्र प्रदेश के
श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से जब मंगलयान को छोड़ा गया तब हर
देशवासी की छाती चौड़ी हुई थी। एक पल को लगा था कि अब चांद पर हमारी पहुंच बहुत दूर
नहीं है। वह वाकई खुशी का पल रहा।
लेकिन
जबसे कोरोना ने फैलना शुरू किया उसने दुनिया भर की देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर
सवाल खड़े कर दिए। इस तरह की स्वास्थ्य आपदा को लेकर हमारा देश कितना तैयार था इसकी
पोल अब खुलती जा रही है। अस्पतालों में उपचार दे रहे डाक्टरों के पास उचित
गुणवत्ता वाले संसाधन उपलब्ध नहीं है। हमेशा चकाचौंध से भरी रहने वाली देश की
राजधानी दिल्ली से लेकर दूर-सूदूर बसे गांव में बैठे लोगों का मन डरा हुआ है।
ट्रेन, बसें और हवाईजहाज थमे हुए हैं।
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब लाकडाउन की घोषणा की उसी क्षण से करोड़ों
लोगों के लिए दो जून की रोटी का खतरा उन पर मंडरा गया।
केंद्रीय एवं राज्य सरकारें
दावा कर रहीं हैं कि वे किसी को भूखा नहीं रहने देंगी। लाकडाउन एवं कई शहरों में
लगे कर्फ्यू ने ट्रांसपोर्ट व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है। जरूरत मंदो को
भरपेट खाना खिलाने का दावा चाहे सरकार लाख दावा कर रही हो लेकिन जमीनी स्थिति कुछ
और ही है। लोगों को खाना खिलाने की कोई व्यवस्थित योजना सरकार नहीं बना पाई।
लिहाजा जिन्हें वास्तविक खाने की जरूरत है वह भूखे पेट सोने को मजबूर है।
अगर
मध्यप्रदेश को लेकर बात की जाए तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राशन मुफ्त
में मुहैया कराने की घोषणा की है लेकिन लोगों को सही समय पर राशन अब भी नहीं मिल
पा रहा है। मध्यप्रदेश सरकार की कोई प्रोपर योजना जमीन पर नहीं दिख रही है। इंदौर
और उज्जैन जैसे शहरों के दवाखानों पर दवाइयां खत्म होने की कगार पर है। प्रदेश के कुछ
जिलों में अब अन्य चीजों की तरह दवाओं की भी होम डिलेवरी करने बात कही जा रही है।
ऐसे में जिन्हें दवाओं की सख्त आवश्यकता है वे बहुत परेशान हो रहे हैं। मध्यप्रदेश
के शाजापुर जिले में शहर से दूर झुग्गी बनाकर रहने वाले मूर्तियां बनाने वाले एक
मूर्तिकार ने बताया ने बताया कि हमसे अपनी झुग्गी से बाहर नहीं निकलने के बारे में
तो कह दिया गया है लेकिन अब तक हमसे हमारे खाने के बारे में कोई पूछने नहीं आया।
इस मूर्तिकार की तरह अनेक लोग सरकार की ओर बहुत उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं
तो कुछ हिम्मत हारने लगे हैं। अनेक लोगों के परिजन अन्य शहरों में अब भी फंसे हुए
हैं। कुछ ने तो सैंकड़ों किलोमीटर चलकर घर पहुंचने के लिए निकल चुके हैं। जब
एक्सपर्ट्स के लिखे लेख पढ़ते हैं तो रूह कांप उठती है। केंद्र सरकार ने दूरदर्शन
पर रामायण प्रसारण की शुरुआत कर दी है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश
जावड़ेकर सहित अन्य मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने रामायण के पहले ऐपिसोड को घर पर
देखते हुए फोटो ट्वीट किया तो वे जमकर ट्रोल हुए। लिहाजा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को
तो थोड़ी ही देर में अपना फोटो डिलीट करना पड़ा।
सोशल
मीडिया में फेक खबरों की बाढ सी आ गई है। पहले जबलपुर पुलिस द्वारा घर से बाहर
निकलने पर गोली मारने वाली वीडियो वायरल हुई। फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के नाम
से 1 अप्रैल से लोगों के घरों में बाहर
से ताला लगने वाली चिट्ठी जमकर वायरल हो रही है। कुच असमाजिक तत्व इस समय में भी
स्थानीय शासन को सहयोग की बजाय मुसीबत बने हुए हैं। जारी किए गए सहायता नंबरों पर
हर रोज अनेक लोग बेवजह ही फोन कर परेशान कर रहे हैं। ऐसे में प्रशासन के सामने भी
चुनौतियां कम नहीं हैं। यह महामारी कब तक और कितना प्रभावित करेगी यह कह पाना
मुश्किल ही है। हर जिस तरह से सब कुछ बदल रहा है। यह देख लग रहा है कि काश! दुआएं ही दवाएं बन
जाएं तो कितना अच्छा हो।
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Sunday 26 January 2020
गण और तंत्र की बात
Wednesday 2 October 2019
अंजाने ही सही परंतु हम अपने विरोध के तरीके से स्वंय को पीछे करते हैं
Wednesday 15 May 2019
शिक्षा में नंबरों से अधिक गुणवत्ता की बात की जाए तो...?
Wednesday 31 October 2018
चुनाव आयोग को अभी और भी मजबूत होने की आवश्यकता
पत्रकारिता के चलते फिरते विश्वविद्यालय का यूँ चले जाना…
मुलयनिष्ठ पत्रकारिता के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले प्रो.कमल दीक्षित भले ही अब सशरीर हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन वे मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता ...
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लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव अथवा मतदान का बहुत महत्व है, इसके माध्यम से जनता शासन व्यवस्था में अपनी भागीदारी तय कर सकती है । लेकिन ...
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मुलयनिष्ठ पत्रकारिता के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले प्रो.कमल दीक्षित भले ही अब सशरीर हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन वे मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता ...
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बीते दिनों केंद्रीय विद्यालय(केंद्रीय बोर्ड) अर्थात सीबीएसई के 12वीं और 10वीं के नतीजे घोषित हुए और अब हमारे मध्यप्रदेश में भी मांशिम अपने...